ॐ मण्डली की स्थापना
सिंध-हैदराबाद में दादा लेखराज कृपलानी (बडग जाति के ब्राह्मण और विख्यात हीरों के व्यापारी) को 50 वर्ष की आयु में सिर्फ़ साक्षात्कार हुए। आखिर वह समय भी गया, जब उन्हें सत्यता का बोध हुआ। उन्हें सन् 1936 में, जबकि उनकी 50 वर्ष की आयु थी, अनेक सा. हुए जिनमें उन्होंने देखा कि इस शताब्दी के अंत तक स्वर्णिम युग की स्थापना होगी तथा इससे पहले इस तमोप्रधान कलियुगी सृष्टि का महाविनाश होगा। (ज्ञानामृत-फरवरी 1986) लेकिन साक्षात्कारों का अर्थ वे खुद नहीं समझ पाए। अपने जीवन में दादा लेखराज ने 12 गुरु किए थे, वे गुरु भी उनका अर्थ बताने में असमर्थ रहे। "बाप खुद कहते हैं- हमने 12 गुरु किए थे। यह तो अभी समझते हैं गुरु करते-2 हम पट आए पड़े हैं। टाइम वेस्ट हो गया है। यह भी ड्रामा में नूँध है।" (मु.ता. 17.2.69 पृ.1 मध्यादि) दादा लेखराज साक्षात्कारों का अर्थ जानने के लिए भटकते रहे। बनारस गए, वहाँ पर दीवारों में लीकें खींचते रहते थे; परन्तु समझ में नहीं आता था। मु.ता.26.7.88 पृ.2 के आदि में यह बात आई है कि “बाबा अनुभव अपना बतलाते हैं, शुरू में बनारस गए तो दीवारों पर गोले आदि निकालते रहते थे। समझ में कुछ भी नहीं आता था- यह क्या है; क्योंकि यह तो जैसे बेबी बन गए।”

साक्षात्कारों का अर्थ जानने के लिए दादा लेखराज ब्रह्मा की कलकत्ते की ओर रवानगी

वे उन साक्षात्कारों का अर्थ जानने के लिए बनारस होते हुए कलकत्ते अपने भागीदार के पास आए, जिनका लौकिक नामसेवकरामथा।खास विश्वसनीय व्यक्ति सेवकराम भी थे, जिनके साथ बाबा ने साझेदारी(पार्टनरशिप) मेंलखीराज-सेवकराम एंड संसनाम से हीरों आदि का व्यापार शुरू किया। जो दादा लेखराज के साथ एक ही बिल्डिंग में अपने परिवार के साथ रहते थे।” (किताब - थ्री इन वन) जो 10 वर्ष से उनके साथ था, वह पहले साधारण-सा नौकर था, बाद में दादा लेखराज कृपलानी ने उनकी ईमानदारी और बुद्धिमत्ता को देखकर उन्हें अपना भागीदार बना लिया था। मु.ता.10.11.88 पृ.1 के अंत में बताया है कि सेल्समेन जब होशियार देखा जाता है तो फिर उनको भागीदारी बनाया जाता है, ऐसे ही थोड़े ही भागीदारी मिल जाती है। शाम होती थी और घूमने-फिरने चले जाते थे। भागीदार थे। समझते थे पगार में इतना काम नहीं करेंगे। भागीदार में काम अच्छा करेंगे। तो अपने को स्वतंत्र रख दिया। संस्कार ही ऐसे थे। (मु.ता.3.1.67/74 पृ.2 मध्य) .वा.ता.1.2.79 पृ.259 के आदि में बंगाल-बिहार ज़ोन से बात करते हुए बाबा ने बोला हुआ है- ‘‘साकार तन को ढूँढा भी यहाँ से ही है।’’ (यह नहीं कहा सिंध-हैदराबाद से) .वा.ता.2.2.08 पृ.3 के अंत में बोला है कि बंगाल में बाप की पधरामणी हुई है, प्रवेशता हुई है।”  "बच्चे यह भी समझते हैं शिवबाबा ने कलकत्ते में जन्म लिया। ऐसे ही कहेंगे। वहाँ से ही शुरू हुआ। कोई के सामने बैठने से ध्यान में चले जाते थे। यह शुरू कलकत्ते से हुआ। तो शिव का रिइनकारनेशन जैसे कलकत्ते में हुआ।" (रात्रि मु.ता. 2.4.72 पृ.1 मध्य) इन महावाक्यों से ये स्पष्ट होता है कि जहाँ कल्प पूर्व सदाशिव ज्योति का अवतरण हुआ था, उसी स्थान (कलकत्ता) में फिर से होता है और वही मुकर्रर रथ की जन्मस्थली पूर्वी बंगाल कलकत्ता ही थी और वो वहीं का रहवासी था। दादा लेखराज कृपलानी का जन्म सिंध प्रान्त में हुआ था। बाद में कुछ समय के लिए वो कलकत्ते में व्यापार करने के लिए रहने लगे; परन्तु मूल निवासी नहीं थे और जब साक्षात्कार हुआ तब वे सिंध में ही थे। साक्षात्कार करने को प्रवेशता होना नहीं कहेंगे; इसलिए दादा लेखराज को शिवबाप का मुकर्रर रथ नहीं कह सकते हैं।


त्रिमूर्ति का जन्म

सदाशिव ज्योति के प्रथम अवतरण के समय ही कलकत्ते में वे त्रिमूर्ति कही जाने वाली तीनों मूर्तियाँ मौजूद थीं, जिनमें एक मुकर्रर रथधारी मूर्ति 60 वर्षीय वानप्रस्थी की भी थी।

1.ज्ञानदाता, सर्व की सद्गति दाता त्रिमूर्ति परमपिता परमात्मा शिव (एक) ही है। (बाकी) ब्र.वि.शं. तीनों का जन्म इकट्ठा है। सिर्फ़ शिवजयंती नहीं है; परंतु त्रिमूर्ति शिवजयंती। (मु.ता.27.9.75 पृ.3 आदि)

2.बाप के अवतरण की तारीख आदि-रत्नों (तीन मूर्तियों) के जन्म की तारीख है। (अ.वा.ता.19.11.79 पृ.26 अंत)

3. शिवबाबा को पधरामणी तो हुई, फिर ब्रह्मा, विष्णु, शंकर की भी साथ में पधरामणी चाहिए। (साकार मु.ता. 26.2.66)

4. पहले-2 तो ये त्रिमूर्ति ही है; क्योंकि अकेला शिव भी नहीं। नहीं, त्रिमूर्ति ज़रूर चाहिए। (साकार मु.ता. 27.10.66)

5. बाप को भी तीन मूर्तियों द्वारा कार्य कराना पड़ता है; इसलिए त्रिमूर्ति का विशेष गायन और पूजन है। त्रिमूर्ति शिव कहते हो। एक बाप के तीन विशेष कार्यकर्ता हैं, जिन द्वारा विश्व का कार्य कराते हैं। (अ.वा.ता. 4.1.80 पृ.173 अंत)



दादा लेखराज ब्रह्मा के साक्षात्कारों के रहस्य का खुलासा

सृष्टि प्रक्रिया हद में हो या बेहद में, मात-पिता दोनों ही सक्रिय रहते हैं, ऐसे ही शिवबाप की प्रवेशता भी भागीदार (जगत्पिता) और जगदम्बा माता में साथ-साथ होती है।  "माता और पिता के बिगर सृष्टि की रचना हो नहीं सकती। यह तो बिल्कुल साधारण समझने की बात है। एक हैं बेहद के मात-पिता, दूसरे हैं हद के। यह भारत है पारलौकिक बेहद के बाप का बर्थ प्लेस। ज़रूर माता और पिता दोनों ही चाहिए।" (मु.ता. 15.11.73 पृ.1 आदि) प्रजापिता द्वारा ही उन साक्षात्कारों का अर्थ तीन मूर्तियों में दो माताओं को समझाया जाता है। एक बड़बोली माता सिर्फ़ सुनती है पर समझती नहीं है; परन्तु दूसरी माता सुनने के साथ-साथ समझकर धारण भी करती है। बाद में ज्ञान-बीज का फाउण्डेशन धारणामूर्त माता के द्वारा दादा लेखराज में पड़ता है और विश्वास तब पक्का हो जाता है। जिस माता ने ज्ञान-बीज धारण किया, उस माता से राधे के साथ दादा लेखराज ब्रह्मा सुनते हैं। बीज प्रजापिता से पड़ता है और विश्वास माता के द्वारा होता है।  प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा तुम बच्चों को अपना परिचय देता हूँ। ब्रह्मा को भी (परिचय) मिला, सरस्वती को भी मिला। (मु.ता. 27.6.72 पृ.1 आदि ) दादा लेखराज और ॐ राधे की सतयुग में राधा-कृष्ण युगल बच्चों के रूप में साथ-साथ जन्म लेने की शूटिंग यहाँ हो जाती है। प्रजापिता (आदिनारायण) और धारणावान माता (आदिलक्ष्मी) से सतयुग में जन्म लेने वाले 16 कला सम्पूर्ण (कृष्ण और राधे) दादा लेखराज ब्रह्मा और ॐ राधे मम्मा की आत्माएँ हैं। साक्षात्कार दादा लेखराज को हुए थे और उनका अर्थ भी भागीदार (प्रजापिता) के द्वारा मिल गया।


सिंध में सत्संग  की शुरुआत

 

निश्चय के नशे के साथ-2 स्थूल धन-संपत्ति से भी वैराग्य उत्पन्न होने लगता है। "उस समय बुद्धि में आया हमको विष्णु चतुर्भुज बनना है, हम इस धन को क्या करेंगे। बस, बाबा ने बुद्धि का ताला खोल दिया। बाबा तो धन कमाने में बिज़ी था, जब देखा राजाई मिलती है तो फिर गधाई का काम क्यों करें।" (मु.ता. 23.4.87 पृ.2 मध्य) जैसे यह बाबा जवाहरात का धन्धा करते थे, फिर बड़े बाबा ने कहा- "यह अविनाशी ज्ञान-रत्नों का धन्धा करना है। इससे तुम यह बनेंगे। चतुर्भुज का साक्षात्कार करा दिया। अब विश्व की बादशाही लेवें या यह करें। सबसे अच्छा धन्धा यह है तो उनको मारी ठोकर। भल कमाई अच्छी थी; परन्तु बाबा ने इसमें प्रवेश होकर मत दी कि अब अल्फ और बे को याद करो।" (मु.ता.12.5.87 पृ.2 आदि) यहाँ जो बड़े बाबा कहा है, ये निराकार शिवबाप ने भागीदार के लिए कहा है; क्योंकि निराकार छोटा-बड़ा नहीं होता है। "गॉड को हाइएस्ट और लोएस्ट थोड़े ही रखना होता है। वो तो मनुष्यों को रखना होता है।" (मु.ता. 2.2.67 पृ.2 आदि) निराकार शिवबाप ने जिस भागीदार में प्रवेश किया था, उसके द्वारा बुद्धि का ताला खोला; इसलिए आगे ही बोला- "बाबा ने इसमें प्रवेश होकर मत दी थी अब अल्फ और बे को याद करो। धन तो इन (ब्रह्मा) के पास भी बहुत था। जब देखा कि अल्फ से बादशाही मिलती है तो फिर यह धन क्या करेंगे? क्यों न सब-कुछ अल्फ के हवाले कर बादशाही लेवें।" (मु.ता. 22.4.77 पृ.2 अंत) "अल्फ अल्लाह को याद करो तो बे बादशाही तुम्हारी।" (मु.ता. 21.4.92 पृ.2 आदि) इन महावाक्यों से ये स्पष्ट होता है कि पहला अल्फ़ाज अल्फ कोई निराकार नहीं है, ज़रूर कोई साकार व्यक्तित्व है, सतयुग की बादशाही लेने के लिए दादा लेखराज ने जिसके हवाले सारा कारोबार भी उसे हस्तगत किया था। अल्लाह अर्थात् ऊँचे ते ऊँच और वो खुदा आता है अल्फ में और जिस अल्फ (भागीदार) ने बताया- अगर विष्णु जैसा देवता बनना है तो ये स्थूल रत्न पत्थर हैं, इनका कारोबार छोड़कर ज्ञान रत्नों का व्यापार करना है। उसी अल्फ अर्थात् भागीदार को दादा लेखराज अपना सारा कारोबार सौंपकर सिंध में आकर सत्संग की शुरुआत करते हैं। "(भागीदार) अल्फ की तार पहले एक (दादा लेखराज ब्रह्मा) को आई, सेवा अर्थ-सर्वस्व त्यागमूर्त (पहले-2) एक अकेले बने।" (अ.वा.ता.18.1.79 पृ.228 आदि)



भागीदार का सत्संग में आना

कुछ समय बाद नज़दीकी लौकिक सम्बन्धी भागीदार (प्रजापिता) और दो माताएँ भी सिंध में आकर दादा लेखराज कृपलानी को हिसाब-किताब दे देते हैं और दोनों मिलकर सत्संग चलाते हैं।  "चैरिटी बिगन्स एट होम। यह कायदा है। पहले मित्र-सम्बन्धी बिरादरी आदि वाले ही आवेंगे। पीछे पब्लिक आती है। शुरू में हुआ भी ऐसे।" (मु.ता. 3.8.75 पृ.2 मध्यांत) प्रजापिता के द्वारा भक्तिमार्ग की गीता पढ़कर सुनाई जाती थी। "वही गीता ओममण्डली में सुनाते थे; परन्तु अभी गुह्य बातें सुनते-2 सारे राज़ को समझ गए हैं। मनुष्य भी कहते हैं- आगे आपका ज्ञान और था। अब तो बहुत अच्छा है।" (मु.ता. 27.1.78 पृ.2 अंत) प्रजापिता और दो माताओं के द्वारा ही यज्ञ का संचालन होता था। मु.ता. 25.7.67 पृ.2 के अन्त में बाबा ने स्पष्ट भी किया है- “10 वर्ष (से साथ में) रहने वाले ध्यान में जाय मम्मा-बाबा को भी ड्रिल कराते थे। हेड होकर बैठते थे। उनमें बाबा प्रवेश कर डायरेक्शन देते थे। कितना मर्तबा था। मम्मा-बाबा भी उनसे सीखते थे।” 10 वर्ष से दादा लेखराज के साथ भागीदार और माताएँ थीं, जिनमें शिव की प्रवेशता होती थी जो मम्मा-बाबा को भी ड्रिल अर्थात् याद की प्रक्रिया सिखाते थे। उस समय प्रजापिता के द्वारा जो वाणी चलती थी, उसको पिऊ की वाणी कहा जाता था। पिऊ सिन्धी भाषा में पिता को कहा जाता है; लेकिन वो बहुत स्ट्रिक्ट वाणी थी। इसलिए आज भी दीदी-दादियाँ पिऊ का नाम सुनने से डर जाती हैं। उनका आदि में रौद्र रूप था, जिसके आधार पर इस यज्ञ का नाम ‘रुद्र गीता-ज्ञान-यज्ञ’ पड़ा। "भगवान को रुद्र भी कहा जाता है। कृष्ण को रुद्र नहीं कहेंगे।" (मु.ता. 19.6.92 पृ.1 अंत) भागीदार रुद्र स्वभावी थे और उनमें शिव की भी प्रवेशता थी; इसलिए बोला-भगवान को रुद्र कहा जाता है, कृष्ण को नहीं; क्योंकि दादा लेखराज उर्फ़ कलाबद्ध कृष्ण मीठे स्वभाव के व्यापारी थे, उनको तो रुद्र नहीं कहा जा सकता तो भगवान भी नहीं कहा जा सकता है और शिव की प्रवेशता भी उनमें नहीं थी ।
"प्रजापिता में जो पिऊ बैठा है, उनको तुम बाप कहते हो। यह तुमको पवित्र बनाए फिर अपने घर ले जाते हैं। पिता वो भी है तो यह भी है। वो है निराकार (स्टेज वाला), यह है साकार।" (मु.ता. 15.8.65 पृ.1 आदि)
"पिऊ भी कौन? प्रजापिता ब्रह्मा और शिव। बस, इनसे जास्ती अथॉरिटी तो कोई है नहीं। कोई है बच्चे? नहीं। वो आत्माओं का पिता और वो शरीरों का बड़ा-(ते)-बड़ा पिता।" (साकार मु.ता. 28.6.65)
"वह है निराकारी आत्माओं का बाप। और फिर साकार में सबका बाप प्रजापिता ब्रह्मा है।" (मु.ता.16.9.68 पृ.1 मध्य)
इन महावाक्यों के अनुसार बड़े-ते-बड़े पिता दो ही हैं- निराकार और साकार, तीसरा कोई और नहीं हो सकता है। निराकार तो सभी आत्माओं का बाप है और सारी साकार मनुष्य-सृष्टि का पिता आदिदेव/आदम/एडम अर्थात् पिऊ प्रजापिता ब्रह्मा हैं, जो कि दादा लेखराज नहीं हैं, जिसके प्रमाण मुरलियों में स्पष्ट रूप से बताए हैं- "उनका अंतिम जन्म लेखराज है। वह तो प्रजापिता बन नहीं सकता।" (मु.ता. 21.8.73 पृ.5 मध्यांत)
"यह तो जवाहरी था, यह कैसे प्रजापति हो सकता?" (मु.ता. 28.7.72 पृ.4 मध्य)
ये महावाक्य दादा लेखराज कृपलानी के लिए बोले हैं, जो हीरों के जवाहरी थे, जिनका लास्ट जन्म में नाम लेखराज था और वो प्रजापिता ही नहीं बन सकते तो पिऊ भी नहीं हो सकते अर्थात् दादा लेखराज को साकार मनुष्य-सृष्टि का साकार पिता नहीं कह सकते हैं। “प्रजापिता नाम बाप का शोभता है।” (मु.ता.11.1.73 पृ.1 आदि) "राम कहा जाता है बाप को।" (मु.ता. 6.9.70, पृ.3 मध्य) "सर्वशक्तिवान तो एक बाप ही है, जिसको राम भी कहते हैं।" (मु.ता.20.2.74 पृ.3 आदि) "राम शिवबाबा को कहा जाता है" (मु.ता.7.9.68 पृ.3 मध्यादि) इन सभी महावाक्यों के अनुसार बाप प्रजापिता ब्रह्मा ही है, जो शिवबाप का मुकर्रर रथ है, जिसको शिवबाबा कहें, वह भागीदार अर्थात् प्रजापिता ब्रह्मा ही राम वाली आत्मा है।


यज्ञ में विघटन

सन् 1942 में कुछ ऐसा घटनाक्रम हुआ, जिसके कारण यज्ञ (ॐ मंडली) में विघटन हो गया। मु.ता.14.9.87 पृ.1 के अंत में बाबा ने बोला है- “इस रुद्र ज्ञान यज्ञ में असुरों के विघ्न ज़रूर पड़ेंगे।” "रुद्र ज्ञान यज्ञ से ही विनाश ज्वाला निकली है। (मु.ता.19.6.92 पृ.1 अंत) यज्ञ के अंदर दो प्रकार के ब्राह्मण उत्पन्न हो गए। एक विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे दैवी संस्कारों वाले ब्राह्मण तथा दूसरे रावण, कुम्भकर्ण जैसे आसुरी स्वभाव, संस्कारों वाले (विधर्मी और विदेशीयता से प्रभावित) ब्राह्मण। बुद्धिवादी प्रजापिता ने तो उन विपरीत बुद्धि ब्राह्मणों का सामना किया। "विनाश ज्वाला प्रज्वलित कब और कैसे हुई? कौन निमित्त बना? क्या शंकर निमित्त बना या यज्ञ रचने वाले बाप और ब्राह्मण बच्चे निमित्त बने? जब (कलकत्ते) से स्थापना का कार्य-अर्थ यज्ञ रचा तब से स्थापना के साथ-2 यज्ञ-कुण्ड से विनाश की ज्वाला भी प्रगट हुई। तो विनाश को प्रज्वलित करने वाले कौन हुए? बाप और आप साथ-2 हैं न! तो जो प्रज्वलित करने वाले हैं तो उन्हों को सम्पन्न भी करना है, न कि शंकर को।" (अ.वा.ता.3.2.74 पृ.13 अंत) परन्तु माता ने उन बच्चों का साथ दिया, जिसके कारण मात-पिता के बीच में मत-भेद हो गया। माता सहित समस्त परिवार एक ओर और दूसरी तरफ राम बाप एक ओर हो गए।
"स्थापना के आदि (शुरुआत) समय तो सारी दुनिया एक तरफ और एक आत्मा दूसरी तरफ थी ना?" (अ.वा.ता. 9.4.73 पृ.19 अंत, 20 आदि) यज्ञ के अंदर ॐ मंडली की बात है, जब बाहर सिंध निवासियों में अंदर की बात बाहर फैलने लगी तो कन्या-माताओं को सत्संग में आने से रोका जाने लगा। पवित्रता की बात न समझने के कारण कन्या-माताओं पर अत्याचार होने लगे। मुरली में बोला है -
"तुम्हारा (पतितों को पावन बनाने का) धंधा ही झगड़े का है; क्योंकि तुम प्योरिटी पर ज़ोर देते हो। कितने विघ्न पड़ते हैं।" (मु.ता. 13.4.68 पृ.3 आदि)
"अबलाओं पर अत्याचार और कहाँ भी कोई सतसंग आदि में नहीं होते। ढेर-के-ढेर सत्संगों में जाते हैं। कोई भी कहाँ जाने की मना नहीं करते हैं।" (मु.ता. 30.6.68 पृ.4 मध्य) झगड़ा बढ़ता गया और दादा लेखराज कृपलानी झगड़े का सामना नहीं कर सके। बिना किसी को बताए यज्ञपिता अर्थात् पिऊ राम बाप का साथ छोड़कर कराची भाग गए।
"तुम भागे थे ना! सिंध से कराची में गए।" (मु.ता. 24.7.70 पृ.2 आदि) और कुछ समय बाद सन् 1942 में यज्ञपिता रामबाप का कारणे-अकारणे प्राणांत हुआ ।


माताओं के द्वारा यज्ञ संचालन

दोनों माताएँ सिंध से कराची दादा लेखराज के पास चली गई थी। "बाबा के पास दो माताएँ आई थीं। बड़ी फर्स्ट क्लास थीं।" (मु.ता. 16.3.75 पृ.2 मध्य) फर्स्ट क्लास में जाने वाली (महागौरी और महाकाली) माताएँ सामान्य माताएँ नहीं हो सकती हैं। उसके बाद दोनों माताओं के द्वारा यज्ञ का संचालन होता था। "ऐसे भी बहुत जाते हैं और बरोबर प्रैक्टिकल में, तुम लोगों को बताया ना कि कितना दिन, कितना वो साक्षात्कार ले आती थी। हम, मम्मा, तुम बच्चे, वो जो प्रोग्राम ले आते थे, उनमें हम बैठ करके रहते थे। वो हेड हो करके बनती थी, नज़र करती थी; क्योंकि बाबा उनको दृष्टि दे देते थे- कौन ठीक बैठे हैं, कौन योग में बैठे हैं। वो बैठ करके दृष्टि देती थी बाबा की प्रवेशता से, मदद से। टीचर बन करके बैठती। वो आजकल बिल्कुल ही गटर....। ऐसी-2 फर्स्टक्लास-2। तो अच्छे-2 फर्स्टक्लास-2 भी गिर पड़ते हैं।" (साकार मु.ता.8.9.64)
"बहुत-2 अच्छी बच्चियाँ जो मम्मा-बाबा के लिए भी डायरेक्शन ले आती थीं, ड्रिल कराती थीं। उनके डायरेक्शन पर हम चलते थे। सभी से जास्ती दुर्गति में वह चले गए। यह बच्चियाँ भी जानती हैं।" (मु.ता. 28.5.69 पृ.2 अंत)
यहाँ जो अच्छी-अच्छी बच्चियाँ बोला है, वो कोई सामान्य बच्चियों के लिए नहीं है; क्योंकि मम्मा-बाबा को ड्रिल कोई सामान्य आत्मा नहीं करा सकती है। ड्रिल वही करा सकती है, जो उनसे भी पुरुषार्थ में आगे हो। जिन माताओं में शिवबाप की प्रवेशता होती थी, जो मम्मा-बाबा को भी पढ़ाई पढ़ाती थीं; लेकिन बाद में वो भी शरीर छोड़ दीं। लेकिन जब तक ये दोनों माताएँ थीं, तब तक दादा लेखराज में सुप्रीम सोल शिव की प्रवेशता नहीं हुई; क्योंकि मु.ता.26.5.78 पृ.1 के मध्यांत में बोला है- “कराची से लेकर मुरली निकलती आई है। कराची से लेकर- पहले बाबा मुरली नहीं चलाते थे। रात को दो बजे उठकर 10-15 पेज लिखते थे। बाप (माताओं द्वारा) लिखवाते थे। फिर उसकी कॉपियाँ निकालते थे।” और ता.25.2.68 पृ.1 आदि रात्रि की मुरली में बाबा ने कहा है कि “शुरू में कराची में रात को 2 बजे हम वाणी लिखते थे।” मुरलियों से ही साबित होता है कि पहले कराची में दादा लेखराज में शिवबाप की प्रवेशता नहीं हुई थी। माताओं में प्रवेश कर शिवबाप दादा लेखराज के द्वारा लिखवाते थे। सन् 1947 तक दोनों माताएँ भी शरीर छोड़ देती हैं।
"मम्मा-बाबा को भी ड्रिल सिखलाते थे। डायरेक्शन देती थी ऐसे-2 करो। टीचर हो बैठती थी। हम समझते थे यह तो बहुत अच्छा नम्बर माला में आवेंगी। वह भी गुम हो गए। यह सब समझाना पड़े न! हिस्ट्री तो बहुत बड़ी है।" (मु.ता.28.5.74 पृ.2 अन्त)
"अच्छे-2 फर्स्टक्लास ध्यान में जाने वाले, जिनके डायरैक्शन पर माँ-बाप भी पार्ट बजाते थे। आज वे हैं नहीं। क्या हुआ? कोई बात में संशय गया।" (मु.ता. 8.7.73 पृ.1 अंत)
"अच्छे-2 बच्चे 5-10 वर्ष रह अच्छे-2 पार्ट बजाते, फिर हार खा लेते हैं।" (मु.ता.8.7.73 पृ.1 अंत)


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